Well, I had written this poem when I was in 10th Standard. When I read it now, again after 9 years, it reflects the perplexity of a teenager's mind to me. It depicts how a teenager’s mind is not ready to accept the changes and the day to day anguish which the pliable mind has to face during the transition. A transition from a carefree childhood, to a questioning teenage is what this poem is trying to illustrate… have patience and read on… coz the last two stanzas hold the essence...
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल
जहाँ कोई ना हो
बस उल्फ़त का साया हो
दिन के उजाले में भी
अंधेरी रात की काया हो
जहाँ किसी मनुष्य की संगत ना हो
बस हो तो उनकी यादें
फिर भी कितने, कितने दिनों तक
उनकी याद में घुलती रहूंगी
नयी ज़िंदगी को नये सिरे से शुरू करना है
पुरानी यादों का क्या करना...
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल
जहाँ पर्वतों का आसरा हो
मीठे झरनों की झर- झराहट हो
हरे गलीचो से बिछी वादियाँ हो
उसकी रचना की कुछ झँकियाँ हो
हिरणों सी चंचलता हो
पक्षियों का चहकना हो
जहाँ अकेले रह कर भी
अकेलापन ना हो
यादें ना हो बस हो
तो प्रकृति के नज़ारे...
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल
जहाँ कठिनाईयाँ ना हो
भविष्य की चिंता ना हो
बस अपनी ही ज़िम्मेदारी हो
प्रकृति का आनंद हो
प्रकृति भी ऐसी जहाँ
सूरज का तेज़ हो
चाँद की निर्मलता हो
चाँदनी की ममता हो
तड़पती धूप ना हो
बेहकती निशा ना हो
वन की सुरक्षा हो
वन्य जीवों का साथ हो
परंतु दिल-ओ-दिमाग़ पर
किसी पुरानी याद की तस्वीर ना हो
ऐसी रात जिसकी भोर ना हो
ऐसी सुबह जिसकी शाम ना हो
बस हो तो लम्हें प्यार के
प्रकृति से प्यार के
उसकी रचना से प्यार के
लम्हें सिर्फ़ ख़ुशी भरे
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल
जहाँ दिन स्वच्छ हो
रात सुनसान ना हो
झूठ का सहारा ना हो
सत्य से पर्दा ना हो
झूठी ज़िंदगी ना हो
अशलीलता ना हो
दिखावे की ज़िंदगी ना हो
बस हो तो सादगी
सादगी के साथ
चाँदनी सी निर्मलता
तारों सी झील - मिलता
और सुधाकर की रश्मि सी कॉमलता
सूरज की दिव्या हो
पर्वत की शिखा हो
सबसे बड़े शिल्प की शिल्पा हो
परंतु भूतपूर्व जीवन के
दर्द एवं कठोरता की ज्योति तक ना हो
बस हो तो अंधेरी शांत राजनी
जो हर पल मुझमें विश्वास जगाय जीने की
बिल्कुल अपनी तरह
जो सदियों से शांत है, निर्मल है
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल
जहाँ किसी का इंतज़ार ना हो
कहीं जाने की चाह ना हो
बस बैठी रहूं एक जगह
खोई रहूं अपने में
निहार ती रहूं अपनी दुनिया को
जहाँ ज़िंदगी की ज़रूरत पूरी हो
पर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए
मुझसे किसी को दर्द ना मिले
जैसे भी वो रखे मैं रह सकूँ
इतनी शक्ति रहे मुझमे चंचलता हो
पर मन विचलित ना हो
मन में शांति हो
मन में करूणा हो
पर मन विचलित ना हो
इतनी शक्ति हो कि
वापस वहीं लौटने की चाह जागृत ना हो
या ऐसी कला उत्पन्न हो
कि सभी में मुझे सुंदरता दिखे
उनमे भी कला दिखे
चिड़िया के चहकने में भी संगीत सुनाई दे
मुझमे सकारात्मक प्रवृति उत्पन्न हो
की पत्थर की कठोरता में भी कॉमलता दिखे
ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल
पर पेहले मुझे ये बता
जब इन सब प्राकृतिक सौंदरयों में
हमें सभी मिलते हैं
सभी का रूप दिखता है
सारी ख़ुशियाँ मिलती हैं
सभी ज़रूरतो की पूर्ति होती है
चाँद के रूप में पिता का कोमल स्पर्श
चाँदनी के रूप में माँ की ममता
सूरज सा मार्ग दर्शक
पर्वत के रूप में रक्षक भाई
झरने के रूप में स्नेही बहन
पेड़, पत्ते, फूल, पशु-पक्षी जैसे मित्र
प्राकृतिक नज़ारो का ख़ज़ाना
तो फिर क्यों, क्यों मनुष्य इनके पीछे भागता है
थोड़े से पैसे के लिए हिंसा अपनाता है
जब कि हमारे पास हमारी पकृति का ख़ज़ाना है
जब कि हमारे पास हमारी सोच की समृद्धि है
तू नहीं बता सकता हो तो
काश! काश मुझे कोई बता सकता
ज़िंदगी के सफ़र में
जब कभी मैं ऐसे मुकाम पर आ जाऊं
जब मेरा दिल मुझे ऐसी जगह ले जाना चाहे
जहाँ ....
तो मैं बेशक अपने दिल के साथ चली जाऊंगी
कहीं दूर, दिखावे से दूर, हिंसा से दूर
सादगी के पास, प्रकृति के पास, अहिंसा के पास
फिर कोई भी मुझे नही बुला पाएगा
अपने दिल से मेरी एक ही फ़रमाइश है
"ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहाँ ..."